आज मैं एक ऐसी सिनेमा के बारे में बात करना चाहता हूँ, जिसके बारे में तो दूर की बात, आपने शायद नाम भी नहीं सुना होगा। बिना किसी प्रचार के यह सिनेमा आज से प्रदर्शित होनी शुरू हुई है। और मैं दावे के साथ कह रहा हूँ कि आपकी आँखें नम हुए बिना नहीं रह सकेंगी।
यह कहानी एक दादा-दादी (60 के दशक के), एक पापा-मम्मी (80-90 के दशक के) और एक पौत्री (आधुनिक दशक की) की है। पापा (राजेश कुमार) और मम्मी (चारु शंकर) अपनी बेटी बिन्नी (अंजलि धवन) के साथ लंदन में रहते हैं। जब बिन्नी के दादा-दादी (पंकज कपूर, हिमानी शिवपुरी) दो महीनों के लिए लंदन आते हैं तो उन्हें खुश रखने के लिए घर के परिवेश को संस्कारी चोला पहनाते हैं, जिससे कि उन्हें ऐसा न लगे कि समय और स्थान के साथ वे भी बदल गए हैं। और उनके आने से बिन्नी को अपना कमरा दादा-दादी के लिए खाली करना पड़ता है। यह बात बिन्नी को बहुत खलती है। दादी को दमे की बीमारी है, और हर साल इलाज लंदन में ही होता है। दादा-दादी के विचारों से बिन्नी खिन्न रहती है। उसे यह रूढ़िवादी सोच लगती है।दो महीने बाद दादा-दादी भारत लौट जाते हैं और तीनों पापा, मम्मी और बिन्नी राहत की सांस लेते हैं। पर नियति को कुछ और मंजूर था। दादी की हालत काफी नाजुक हो जाती है और उन्हें उच्च गुणवत्ता वाले उपचार की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन ये सुनकर बिन्नी खिन्न हो जाती है और मजबूरी में पापा को इलाज के लिए पटना जाना पड़ता है। लेकिन दादी की मृत्यु हो जाती है। और उसके बाद कहानी क्या मोड़ लेती है, दादा-पोती के संबंध कैसे रहते हैं, इसी पर पूरी कहानी पनपती है।
दादा के रूप में पंकज जी ने अविस्मरणीय काम किया है और यही उनसे अपेक्षा है। हिमानी जी भी दादी के ममत्व को बखूबी निभाती हैं। पापा और मम्मी की भूमिका में राजेश कुमार और चारू शंकर ९० के दशक के लोगों के द्वंद को बखूबी दर्शाते हैं जिन्होंने रेडियो से चैट जीपीटी के संसार तक का सफर तय किया है। बिन्नी अंजली धवन भी अपने किरदार को बखूबी निभाती हैं। संजय त्रिपाठी को हार्दिक बधाई, इतने अभूतपूर्व सिनेमा को बनाने के लिए। घर-घर की कहानी आँखों के सामने दौड़ जाती है।
इस सिनेमा को देखकर आप अपने घर और अपने परिवार की कहानियों में खो जाएँगे। कई जगह ऐसा लगेगा जैसे कि आपको अपने ही किस्से दिखाए जा रहे हैं। एक दृश्य में पोती दादाजी के गले लगती है, और पापा-मम्मी प्रणाम करते हैं, तो पोती पूछती है कि क्या पापा ने दादाजी को कभी गले लगाया है क्या! और उस वक्त जो विस्मय दादाजी और पापा के चेहरे पर है, बहुत मार्मिक है। मैं सिनेमा में विरले ही रोता हूँ, पर इस सिनेमा में कई बार बिलख-बिलखकर रोया हूँ।
मैं आप सबको पुरजोर तरीके से कहूँगा कि दादा-दादी और पोती-पोते को इस सिनेमा को एक साथ ज़रूर देखना चाहिए, और अगर पापा-मम्मी भी साथ जाएँ तो सोने पे सुहागा। ज़रूर जाएँ और सब साथ जाएँ, शायद हृदय और दृष्टिकोण परिवर्तन भी हो जाए।
मेरी तरफ से 🌟🌟🌟🌟✨ AKG अंकन
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